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जब घर का गला दबोच के
हुकूमती हवा के नुकीले हाथ
निषिद्ध अंगों को चिथोड़ते हैं
जब आदमी मुँह खोलेंगे इस डर के चलते
सरकारी बंदूक खोलती हो अपना मुँह
जब जवान सड़क
बोझिल समय के चौपाल में दिन में ही खर्राटे लेती हो
जब मध्याह्न में आ टपकती हो साँझ
और अँधेरे का षड्यंत्र रचते हुए चाय पीती हो
उजाले के कंडोम के उपर बैठ कर -
तब नहीं लगता क्या पास ही में है कश्मीर ?
ये, यहीं तो है देश की तार में सुखाने लटकाई गई कश्मीर की अंडरवेयर
ये, यहीं तो है कश्मीर की ओवरडोज उल्टी
ये, यहीं तो है कश्मीर की ऐतिहासिक बलगम
ये, यहीं तो है कश्मीर का नसबंदी कराया गया गुप्तांग
जब शांत पत्ते डोलते हैं यूँ ही
और कच्ची राजनीति के टेढ़े मेढ़े रास्ते में
गिर जाती है
सुनमाया की डोको से लकड़ी
जब टानी गई जीभ से टप-टप टपकता है खून
चिचियाता हुआ मौनता की
नदी की छाती में
जब घर के अंदर बैठी दहशत
चेतना बन कर खुले चौक में घूमती है
सत्ता की कानूनी बारूद सूँघते हुए
जब घर के बाहर निकलकर घाव
फटा हाफपैंट पहन कर दवा की मैराथन दौड़ता है -
तब नहीं लगता पास ही में है कश्मीर ?
कहाँ है दूर कश्मीर ?
एक हाथ दूर भूमि में दागी गई गोली की दबी हुई चीख
क्या जोड़-जोड़ से सुनाई नहीं देती ?
एक चरण दूर की मिट्टी में गिरा खून का चमकता चेहरा
क्या पहचान में नहीं आता ?
बस इतना ही पुछ रहा हूँ दार्जिलिङ तुझ से
कि क्या कश्मीर दूर है ?
(अनुवाद कवि द्वारा स्वयं)
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